Ilm-e-Deen Kay Fazail

Book Name:Ilm-e-Deen Kay Fazail

صَلُّوْا عَلَی الْحَبِیْب!      صَلَّی اللّٰہُ عَلٰی مُحَمَّد

          प्यारी प्यारी इस्लामी बहनो ! ख़लीफ़ा हारून रशीद न सिर्फ़ उ़लमा व फ़ुक़हाए किराम की ता'ज़ीम किया करते बल्कि मुल्की मुआ़मलात और अपने दीगर दीनी व दुन्यवी मुआ़मलात में भी उ़लमा व फ़ुक़हाए किराम की राए को तरजीह़ देते, उन की बात को ह़र्फे़ आख़िर समझते, आख़िरत की बेहतरी के लिये उन से नसीह़त त़लब करते, बसा अवक़ात नसीह़त ह़ासिल करने उ़लमा के दरवाज़े तक ख़ुद ह़ाज़िर होते, अगर उ़लमाए किराम दरबार में तशरीफ़ ले आते, तो बादशाह वाली शानो शौकत और रो'बो दबदबे की परवा किये बिग़ैर उन के एह़तिराम में खड़े हो जाया करते थे । जैसा कि :

          मल्फ़ूज़ाते आ'ला ह़ज़रत में है : हारून रशीद के दरबार में जब कोई आ़लिम तशरीफ़ लाते, बादशाह उन की ता'ज़ीम के लिये खड़ा हो जाता ।  एक बार दरबारियों ने अ़र्ज़ की : या अमीरल मोमिनीन ! बादशाहत का रो'ब जाता है । जवाब दिया : अगर उ़लमाए दीन की ता'ज़ीम से बादशाहत का रो'ब जाता है, तो जाने ही के क़ाबिल है । (मल्फ़ूज़ाते आ'ला ह़ज़रत, स. 145, बित्तग़य्युर)

          ज़रा सोचिये ! आख़िर क्या वज्ह थी जो हारून रशीद जैसे अ़ज़ीम बादशाह ने अपने बेटे को ह़ज़रते इमाम किसाई رَحْمَۃُ اللّٰہ ِ عَلَیْہ की बारगाह में इ़ल्मे दीन सीखने के लिये भेज दिया और ख़ुद भी उ़लमाए किराम की इस क़दर ता'ज़ीम कर रहे हैं ? यक़ीनन इस की वज्ह येह थी कि वोह उ़लमाए किराम के मक़ामो मर्तबे और मुआ़शरे में इन की ज़रूरत व अहम्मिय्यत को अच्छी त़रह़ समझते थे और इस बात को अच्छी त़रह़ जानते थे कि गुल्शने इस्लाम को आबाद रखने में इन अल्लाह वालों का अहम किरदार है ।

          इसी त़रह़ अमीरुल मोमिनीन, ह़ज़रते सय्यिदुना उ़मर बिन अ़ब्दुल अ़ज़ीज़ رَحْمَۃُ اللّٰہ ِ عَلَیْہ ने अपनी औलाद की ता'लीमो तरबिय्यत का निहायत उ़म्दा इन्तिज़ाम किया कि बुलन्द मर्तबे वाले मुह़द्दिस, ह़ज़रते सय्यिदुना सालेह़ बिन कैसान رَحْمَۃُ اللّٰہ ِ عَلَیْہ जो ख़ुद इन के भी उस्ताद थे, उन्हें अपनी औलाद का उस्ताद मुक़र्रर फ़रमाया । (التحفۃ اللطیفۃ فی تاریخ المدینۃ الشریفۃ، ۱/۲۳۳)

        ह़ुज्जतुल इस्लाम, ह़ज़रते सय्यिदुना इमाम मुह़म्मद ग़ज़ाली رَحْمَۃُ اللّٰہ ِ عَلَیْہ के वालिदे मोह़्तरम के बारे में मन्क़ूल है : वोह ख़ुद अगर्चे पढ़े लिखे न थे लेकिन इ़ल्मे दीन की अहम्मिय्यत का एह़सास रखने वाले थे, उन की दिली ख़्वाहिश थी कि दोनों साह़िबज़ादे मुह़म्मद ग़ज़ाली और अह़मद ग़ज़ाली رَحْمَۃُ اللّٰہ ِ عَلَیْہِمَا इ़ल्मे शरीअ़त और इ़ल्मे त़रीक़त के ज़ेवर से आरास्ता हों । इसी मक़्सद के लिये उन्हों ने अपने साह़िबज़ादों की ता'लीमो तरबिय्यत के लिये कुछ मालो अस्बाब भी जम्अ़ कर रखा था जो इन दोनों सआ़दत मन्द बेटों के इ़ल्म ह़ासिल करने के ज़माने में इन्हें बहुत काम आया । (اتّحاف السادۃ،مقدمۃ الکتاب،۱/۹ملخصاً)

        इसी त़रह़ हमारे ग़ौसे पाक ह़ज़रते सय्यिदुना शैख़ अ़ब्दुल क़ादिर जीलानी رَحْمَۃُ اللّٰہ ِ عَلَیْہ बचपन में ही अपनी वालिदए मोह़्तरमा की इजाज़त से इ़ल्मे दीन ह़ासिल करने के लिये बग़दाद पहुंचे थे । (بہجۃالاسرار،ذکر طریقہ، ص۱۶۷ ملخصا)